हमारी कविता में शब्द चले आते हैं
किसी कवि के ख्यात भाषण के टुकड़ों से
चली आती है भाषा
किसी पौराणिक आख्यान के सर्गों से छिटककर
जैसे हमारा जाना-सोचा
हो जाता है व्यतीत - हमसे पहले ही
जब जरूरत हो तो
चला आएगा कोई विचार - नाजुक सा
स्मृति की अवसादी पर्तों में दबा
दोहराई जा चुकी बात सा पुराना
ताज्जुब है
हमारी कविता में आज भी
परिंदे, नदियाँ और पहाड़ आते हैं
मिथक और झुठलाए पूर्वग्रह भी
शब्द आते हैं
विचार आता है
भाषा आती है
... ... ...
इस तरह पता नहीं
क्या-क्या चला आता है हमारी कविता में
आज जब
लिखे जाने की सचमुच बहुत जरूरत है।